Thursday, 12 January 2017

मैं सबकुछ हारकर भी चलता रहा, तुम्हे मंज़िल मान कर मैं चलता रहा

मैं सबकुछ हारकर भी चलता रहा,
तुम्हे मंज़िल मान कर मैं चलता रहा

मिले कुछ साथी राह में,
कुछ अच्छे , उनमे से कुछ सच्चे,
कभी कोई छांव दे जाते,
कभी मरहम हर गम के बन जाते,
हर नासूर का निजात था उनमे,
मगर न निभा पाया मैं रिश्ता
है जो दिल मेरे सीने में ,
उसमे प्यार बस कतरा भर है,
गर बाँट दिया तो बचा ही क्या फिर,
सोच सोच मन मेरा मचलता ही रहा,
मैं सबकुछ हारकर भी चलता रहा,
तुम्हे मंज़िल मान कर मैं चलता रहा।।

फिर मिली "दौलत" राह में,
कहने लगी साथ ले चलो
काम आउंगी मैं तुम्हारे,
उठा लिया ,,, चलता रहा
न भूख से फिर डर लगा,
न प्यास से हुआ भेंट फिर,
राह सरल होती रही,
हुआ अहसास मगर कि
प्यार कहीं बंट रहा है क्या?
फिर उठा नींद से,
दौलत को किया दरकिनार,
फिर धीरे धीरे आदतों को बादलता रहा,
मैं सबकुछ हारकर भी चलता रहा,
तुम्हे मंज़िल मान कर मैं चलता रहा।।

मिले कुछ पैरों के निशान फिर,
निशान ये मंज़िल के तरफ से आते देखा,
खुश होता मैं हँसता भी अगर,
निशान ये मुझतक आके रुक जाते,
मगर मुड़ा जो बायीं ओर,
मैंने मंज़िल को किसी और सफर में जाते देखा।

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