के वो नज़रें उठती रहीं गिरती रहीं ,
हर नज़र खुद में लहर,
पर
आपकी नज़रों से जो घायल हुए ,
हाय ! वो नज़राना कुछ और था।।
आरज़ू लिए वफ़ा की
हमने वफ़ा की चादर बिछाई
वो सिक्का चढ़ा के बढ़ गए,चढ़ाना कुछ और था।।
की नाउम्मीदी की हाला पीने वाले,
डर -सहम उम्मीद का जुआ खेलते हैं,
पर
आज फिर हार गए उस हँसी पर सब,
हाय ! उनका मुस्काना कुछ और था।।
कहते हैं कि वो बेजुबां लठ का मालिक,
जाने कब अपना हिसाब सुना दे,
गर डरते तो उनकी कसम को यूँ पनाह न देते
पर
हाय गिरे हम जान कर
वो कसम खाना और था निभाना कुछ और था।।
के इश्क़ का समंदर ये
शांत जितना,
गोद में गहराई उसके उतनी ही आतुर
जा फंसे तो जा फंसे
अब रोष नहीं
उनका दिल में आना कुछ और था
अलग बात है कि
बाद दिल जलाना कुछ और था।।
हैं जानते की मौका दूसरा
चुनिँदो को ही बख्शता है खुदा
पर
बख्श दिया तुझे सारे इल्ज़ामों से जा
तू भी क्या याद करेगी
के तेरा दीवाना कुछ और था।।