Saturday, 23 April 2016

मैं कोई फूल नहीं....

मैं कोई फूल नहीं,
फिर भी
कुचल दिया मुझे जो सरेआम
इसमें तेरी कोई भूल नहीं...
जितने कदम ऊपर से गुज़रे हैं
सुगन्धित ही हुए
क्योंकि प्रतिशोध हमारा उसूल नहीं।।

छलकता नहीं, मैं कोई जाम नहीं,
फिर भी
जो बिछड़ा यार मिला मयखाने में
वो हराम नहीं....
कई मर्ज़ भी दूर हुए है और मरीज़ आज भी मुरीद बने फिरते हैं
सिर्फ यादे भुलाना ही हमारा काम नहीं।।

मैं कोई बर्फ नहीं,
फिर भी
जो दिल उनकी बातों से पिघल जाये
कोई हर्ज़ नहीं...
हाथ थामा है तो साथ निभाएंगे जरूर
मगर उनके दूर जाने पर भी जो अपनी सांस चले
तो हम मर्द नहीं।।

मैं कोई घर नहीं
फिर भी
भाइयों ने आज आँगन दो कर लिए
कोई कितना कहे
असर नहीं
जो टूट जाता है
सहारा सबका पाता है
पीछे इस "सहारे" के स्वार्थ सबका छिप जाता है
टूटता वो तारा भी इससे बच न पाता है
मगर जो टूट जाये बाजू के पथराव से
वो कोई शीश महल जरूर होगा
पर घर नहीं
है ऐसे कई जो सोख लेते हैं
बाजू के छीटें
सहूलियत से
औकात वाली दुनिया की रेल में
मामूली डब्बे के सवारी वो
पर
कमज़ोर उनकी जड़ नहीं।।

मैं कोई चाँद नहीं
फिर भी
जो हमारे चेहरे की तारीफ
दाग से शुरु और दाग पे खत्म  जो हो
कोई ग़म नहीं
जो दिखता है वो ही बिकता है
आपकी तारीफ हमारे लिए कोई सितम नहीं
पर दिखा दो दूजा ऐसा कोई
जो
ताप झेल कर भी शीत न्याछावर करता है
छाले पड़ गए हाथ पाँव में
ऐसे
जिसका कोई मरहम नहीं।।

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