Tuesday, 11 April 2017

क्यों न पूछूँ..

क्यों न पूछूँ कि तुम्हारा हाल कैसा है,
तुम सोचते हो कि भला ये सवाल कैसा है?
क्यों न फोन मिलाऊँ दफ्तर में तुम्हें,
ये जानने कि आज खाने का कमाल कैसा है?
क्यों न पूछूँ कि तुम्हारा हाल कैसा है?

सफेदी की परत चढ़ा कर जो रुमाल देती हूँ,
घर आते आते दागदार हो जाता है
तो क्यों न पूछूँ भला कि आज रुमाल कैसा है?
तो क्यों न पूछूँ कि हाल कैसा है?

घर से निकलते हो तो सब्ज़ियों से ताज़े रहते हो,
घर आते आते चेहरा क्यों बेहाल ऐसा है?
और वैसे आज तो पहली तारीख है,
फिर आज चेहरे पर ये मलाल कैसा है?
अब माथे कि शिकन से क्या क्या अंदाज़े लगाऊं,
इसलिए तो पूछ लेती हूं कि हाल कैसा है?

सारे हाथों का बोझा खुद पर ले लेते हो,
और पगार कि लाइन में सबसे पीछे रहते हो,
वाह वाही भर भर घर लाते हो,
और पैसे मांगू तो ठेंगा दिखाते हो
हालत तुम्हारी मुझसे छिपी नहीं,
पर तुम्हारे इंतज़ार में बैठे बैठे,
मन में उठता ये उबाल जाने कैसा है?
मैं निर्दोष हूँ, मन बांवरा,
यही कहता है तो पूछती हूँ तुमसे
कि तुम्हारा हाल कैसा है?
और तुम सोचते हो कि ये सवाल कैसा है?


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