डरने लगा हूँ मैं...
डरने लगा हूँ मैं कि,
अगर वो दर्द भरा मटका जो
मैंने अब तक दिल के किसी कोने में छिपाए रखा था,
वो मटका अगर फूट जाए तो क्या होगा ?
डरने लगा हूँ मै कि,
जिस डर से मैं भाग रहा हूँ,
वही मेरे सामने आकर खड़ा हो जाये,
तो क्या होगा ?
क्या होगा जब वो सवाल फिर से दागे जाएंगे,
फिर से उन चिट्ठियों के हिसाब मांगे जाएंगे,
चिट्ठियां जो "सिर्फ" कलम से नही लिखी जाती थीं,
चिठियाँ जिनमे "सिर्फ" शब्द नही होते थे,
जब उन चिठ्ठियों का हर एक हर्फ़ मुझसे तुम्हारी वफादारी के सुबूत मांगेंगे,
तो क्या होगा?
डरने लगा हूँ मैं कि,
अगर वो दर्द भरा मटका जो
मैंने अब तक दिल के किसी कोने में छिपाए रखा था,
वो मटका अगर फूट जाए तो क्या होगा?
सर्दी के दिनों में टपरी की वो चाय,
जहाँ एक कटिंग में दो दिलों की कम्पन शांत होती थी,
अब सिर्फ एक ही होठ के निशान पाकर,
यदि वो गिलास मुझसे तुम्हारी गुमशुदगी का कारण मांगे ,
तो क्या होगा?
ये सब सोच सोच कर
अंदर ही अंदर मरने लगा हूँ मैं,
अब डरने लगा हूँ मैं ।
डरने लगा हूँ क्योंकि मैंने भांप लिया है,
कि, जिस दिन ये मटका फूटेगा,
मेरे मन कि अदालत में अर्ज़ली चीख उठेगा,
तमाशबीन आएंगे,
कुछ ताली बजायेंगे,
कुछ कल के अखबार के लिए समान जुटाएंगे,
कटघरे में तुम होगी,
जज की कुर्सी पर मेरा दिल,
अर्ज़ली की चीख पर , मेरा दाखिला होगा
हाँ या न में मुझसे पूछा जाएगा ,
कि इस घात का , इस दर्द का क्या तुम्ही कारण हो,
अब तक मैं बहुत बहुत डर चुका था,
मगर जो उस वकील ने उंगली तुम्हारे ऊपर उठा कर कहा,
कि कहो हाँ, हाँ कह दो कह दो की यही है कारण तुम्हारी अकेली रातों का,
तुम्हारे अधूरे सपनो का,
कह दो की यही कारण है,
तुम्हारे सूखे आंसुओ का,
तुम्हारे तुम्हारे ही नज़रो में अपमान का,
और हद से ज़्यादा मुस्कान का,
यही कारण है कह दो....
बस....
अब बस..
एक शब्द और नही... बोल उठा मैं,
दर्द ऐसेही ही बहुत है, अब न और घात कर,
जो बोलना है बोल, मगर उससे उंगली नीची करके बात कर,
नही है वो गुन्हेगार,
नही है ये वो जिसने मुझे तकलीफ दी है,
ये दर्द मेरा है,
मेरा अपना है,
मेरी औकात इनकी हैसियत से कम हो भले
मगर इस दर्द को बांटना तो दूर, ये मेरे दर्द कि सज़ा के काबिल ही नही है।
इसलिए महोदय, आपको जो सज़ा देनी है , मुझे दें,
इसलिए नही क्योंकि इसमें उनकी हिफाज़त है,
बल्कि इसलिए ,
क्योंकि मुझे आदत है,
क्योंकि मुझे आदत है।।
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