Friday, 19 June 2015

क्या फर्क पड़ता है...

जो पन्नों पर तेरी ,मेरी कलम न चल पायी....
तो क्या फर्क पड़ता है।।
जो घराने में तेरी,मेरी दाल न गल पायी ....
तो क्या फर्क पड़ता है।।
तुम्हें मेरा सच पता है,मुझे तुम्हारा सच पता है.....
अब ज़माना भले ही झूठा समझे हमें...
क्या फर्क पड़ता है।।

जो दो अश्क मीठे ,नमकीन धारा बन गए,....
तो क्या फर्क पड़ता है।
जो याद में तेरे, ज़माने के नज़रों में आवारा बन गए...
तो क्या फर्क पड़ता है।
इस धरा पे काफ़िला अपना अब और नहीं, न ही सही.....
ऊपर ही कभी तेरा साथ मिले....
तो क्या फर्क पड़ता है।।

जो सपनों ने मेरे ,आँखों में ही दम तोड़ दिया,.....
तो क्या फर्क पड़ता है।
तुमने भी जो मेरे सपनों को,गैर की आँखों से जोड़ लिया ,..
तो क्या फर्क पड़ता है।
पहले ज़माना आवारा कहता था, आदत सी थी,
अब तुमन भी बेचारा कह दिया .....
तो क्या फर्क पड़ता है।।

एक मुद्दत के बाद,लोगो को पंख मिलते हैं,
मुझे  डंक ही हैं मिले अगर...,...
तो क्या फर्क पड़ता है।
पहले नज़रें भी चेहेक्ति थीं,
आज ये होठ भी हैं सिले अगर...
तो क्या फर्क पड़ता है।
नज़रें बिछाये फिर भी राहों में तेरे खड़े रहेंगे,
खाक़ बन्ने के बाद भी जो तू आये अगर....
तो क्या फर्क पड़ता है।।

1 comment:

  1. awesome n creative
    comments to hazaro milenge agar kuch share bhi ho jaye
    to kya farq padta hai.....

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