जब हाथों ने खंजर थाम ही लिया
तो लहु से क्यों तू डरता है,
जो गिर-गिर कर ही जीना है
फिर काहे तू संभलता है,
जो करेजा पत्थर नहीं तेरा,
कहे से मुँह तूने फेरा,
फिर काहे तू खुद को,
यूँ मर्द कहता फिरता है।।
"ख़ुदा" का हाथ, सर तेरे,
तो खुद को मर्द समझता है ?
समय - पतवार साथ तेरे ,
तो खुद को मर्द समझता है ?
"चाहत" मेरी ,साथ तेरे ,
तो खुद को मर्द समझता है ?
इतराता है के तेरे ज़ेहन ओ मन
में बस्ती आज नगरी है....?
मगर गंगा जो तुझ तक पहुँची है,
वो मुझी से हो के गुज़री है!!
हँस ले आज ,
गा ले आज,
कोई गीत गुनगुना ले आज,
तज़ुर्बा कहता है,
के कभी मेरा भी दौर था,
हाल ए दिल जो तेरा है
कभी अपना भी ठौर था,
मैं आँखें मीचूं और तन मन भिगो दो तुम
बस इतना ही चाहा था
उसने बस पलकें भिगो दीं
उनका इरादा ही कुछ और था ।।
Tuesday, 30 June 2015
मर्द हो तुम ?
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