इन निगाहों का जो उन निगाहों से टकराव हुआ,
उत्पन्न मेरे भीतर विचित्र एक विरोधाभाव हुआ,
कि
क्या ये वही निगाहें हैं,
या फिर मेरी ही निगाहों का दोष है,
क्या ये वही अदाएँ हैं,
या फिर बस मेरे अंदर ,
उफान मारता जवानी का जोश है।
क्या ये वही निगाहें हैं
सूरमा भी जिससे अपना रंग चुराता,
क्या ये वही निगाहें हैं
जिनके हँसने से,
मुरझाया चेहरा भी खिलखिलाता।
क्या ये वही निगाहें हैं
जिन्हें कहना बोलना नहीं
बस चहकना चहकाना आता था,
क्या ये वही निगाहें हैं
जिन्हें अजोर को चमकना
और तम को भी चमकाना आता था।
जो आज उन निगाहों से टकराव हुआ,
न कोई बीच बचाव
न कोई सोच बुझाव
बस उत्पन्न मेरे चंचल मन में
एक अनजाना सा ठहराव हुआ
कि
क्या ये वही निगाहें हैं
जो मन के मंदिर की मूरत में
क्या ये वही निगाहें हैं
जी जी कर मरता जिनकी जरुरत में,
क्या ये वही निगाहें हैं
सर कलम जो कर दो उनकी हुकूमत में,
मौत भी दो पल जीलेगी
मेरे दर्पण पर तो तेज ही होगा
पर मौत की आँखें गीली होंगी
ढूंढता मैं बैठा बैठा,
हाथों में मेरी क्या ऐसी रेखाएं हैं??
क्या ये वही निगाहें हैं?
जो आज उन निगाहों से टकराव हुआ
दर्द इक जो अब तक सहमा सा था,
वो दर्द बिना खंजर ही घाव हुआ
जो आज उन निगाहों से टकराव हुआ
मन का हिमनद टूटा, सागर भया
मेरी निगाहों से उन छीटों का बहाव हुआ।
नहीं ये वोे आँखें नहीं
जिनकी तारीफ में शब्द कम पड़ जाते थे,
नहीं ये वो आँखें नहीं
जिन्हें देखता तो लब्ज़ थम से जाते थे,
नहीं ये वो आँखें नहीं
जो उठती थीं मेरे लिए,
हया और नज़ाकत में
तैरता वो तरंग मेरे लिए,
वो उमंग मेरे लिए
मुझे खोने का डर,
मुझे पाने का सुकून,
सिन्दूर मेरे नाम का,
और प्रेम का जुनून।
उन आँखों में
मेरी चिंता की जलती चिता,
रूठना मनाना,
ठंडी पुरवैया सी
वो फटकार लगाना
कुछ तो बात थी उसमें
या ये कहूं
कि बस उसी की बात थी।
उन निगाहों को चाहा
चाहत में साहब बुद्धि बेकार ,बेकार है अकलें
ये तो अब तब ही छूटेगा,
जब हम से दम निकले या दम से हम निकलें।
जब उन निगाहों से आज टकराव हुआ
फिर उसकी याद छू गयी,
उसकी निगाहों से अदाओं से फिर लगाव हुआ
आज
वो बहुत दूर
और मैं
चाह कर भी मजबूर,
उससे मेरी दुनिया थी
और वो मेरी जरूरत
अब उस जरुरत को
कैसे
पूरा कर पाउँगा,
अरे भगवान के घर अंधेर नहीं
पर साहब,
यमराज के घर दीया कैसे जलाउंगा
यमराज के घर दीया कैसे जलाउंगा।।
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