Tuesday, 29 September 2015

दोस्ती बड़ी या दूरी...

मिल जाते हैं राहों में

अक्सर कुछ लोग,

यूहीं, चलते चलते,

सुना जाते किस्से कुछ ऐसे

जिससे आँखें नम

और राह थम सी जाती।।

साथ जिसके मलाई बर्फ खाते खाते बड़े हुए

उनकी आज बड़ी बड़ी दुकाने हैं ,

ताँता लगता लोगों का जहाँ

सूरज ढलते ढलते ,

और हम रह गए,बेबस

बस अपने हाथ मलते मलते।

चलते चलते थक जो जाऊं

मैं हाथ दिखाऊं

पड़ती रिक्शा की दरकार

बातों बातों में पता है चलता

कि

पेज 3 वाला  नया स्टार

कभी किसी ज़माने में था

इनका लँगोटिया यार।।

400 की टिकट लिए

जो पंहुचा

गोलाकार स्टेडियम

के एक कोने में

कोई मिला वहाँ

जिसकी आंखो में ऐसा उमंग

जैसे बच्चों को नए खिलौने में

पूछा तो कुछ ऐसा सुना..

कि

"साहब 4000 की औकात नहीं

पर उसकी पसंदीदा

आलू की रोटी लाया हूँ,

20 साल से जिस दोस्त को

बस ब्लैक एंड वाइट टीवी पर देखता था

बाहर 400 देकर,

उसे यहाँ खोजने आया हूँ"।।

ऐसे कई किस्से मिल जायेंगे

दोस्ती के यूहीं, चलते चलते

जहाँ आज उनकी दोस्ती से बड़ा

फासला है उनमें,

जो कभी साथ साथ थे पलते,

एक ही माँ के हाथ से दोनों ने खाना खाया था

जीवन भर साथ रहने का

सपना दोनों ने मिल कर सजाया था,

पर

आज

क्या वो दूसरा

पहले की मलाई बर्फ की दुकान पर जाने की हिम्मत जुटा पाएगा?

और अगर गया भी,

तो क्या पहला उसे उसके हक़ की

इज़्ज़त दिला पायेगा?

और जरा सोचिये जनाब

की क्या होगा,

जब वो पेज 3 का स्टार

कभी छोड़ कर अपनी कार

रिक्शा को हाथ दिखायेगा,

क्या उस रिक्शा ड्राईवर को

वो पहचान पाएेगा?

लोग नाज़ुक नन्हे फूलों की बलि

पत्थर को चढ़ाते हैं

बिन मांगे उन पत्थरों को

दूध दही सब मिल जाता है...

पर क्या उन आलू की रोटियों को

उनका असली हक़दार मिल पाएगा ??


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