चल भैया , सुबह हो गयी,
Line में लगने चलना है,
कल तो अपना no. आया नहीं,
आज फिर शुरुआत करना है,
राशन की कतार में तो कई बार हम लग चुके,
आज अपनी पगार के लिए भी कतार में लगना है,
"काले" , "गोरे" की लड़ाई में "सांवलो" का रंग ढल रहा है,
क्या system आ गया है,
पूरा देश आज line में चल रहा है,
हर टेढ़े को सीधा किया है,
हर सीधे को कड़क,
अब तो ATM ही मंदिर अपना,
घर अपनी अब सड़क,
मौके और भीड़ का फायदा भी उठाया जा रहा है,
बगल में कचौरी और जलेबियां भी छनवाया जा रहा है,
पर वो कचौरी वाला भी हमारे हालात जानता है,
इसलिए वो भी cash on delivery नहीं, payment in advance मांगता है,
नयी नयी job लगी है,
लेट जाना बॉस को नागवारा है,
और मैं यहाँ line में लग कर अपना "country" धर्म निभा रहा हूँ,
पर अगर "U R FIRED" कह कर जो बॉस ने अपना "corporate" धर्म निभा दिया,
तो मेरा तो धर्म पर से विश्वास ही उठ जायेगा,
हर तरह की line है यहाँ,
छोटी line
लम्बी line
बैंक की line
Atm की line
सुबह की line
दफ्तर से छुट्टी लेकर लगने वाली line
बीवी के छुपाये नोटों को old to gold करने की line,
बुज़ुर्गों के लिए खास line
अब बताइये ...खाँसने वाली उम्र में खास line...
बातें बहुत हो गयी यारों,
अब काम पर चलना है,
भीड़ बढे इससे पहले
Line में लगने चलना है।।
Friday, 18 November 2016
Line में लगने चलना है...
Wednesday, 2 November 2016
चलो सोने चलते हैं...
चलो सोने चलते हैं,
एक दुसरे में खुद को खोने चलते हैं,
सर अपना मैं तुम्हारे गोद में रख दूँ,
और तुम मेरा केश संवारो,
मैं आँखें बंद करूँ,
और तुम मुझे निहारो,
मैं तुम्हारे दिन भर के काम के थकान को छुपाती तुम्हारे आँखों के असमर्थ प्रयास को पढ़ लूँ,
और तुम न कुछ कहो,
बस एक मुस्कान न्योछावर कर दो,
आंसुओं के अम्बार को पनाह देती ये मुस्कान,
हो मानो खोखले महल का पहरेदार,
मैं बातें करूँ तुम्हारी ज़ुल्फ़ों से,
तुम रुष्ट होकर, ज़ुल्फ़ संवारो,
गुस्सा ये तुम्हारा, अल्हड़पन ये,
यही तो साँसों को मेरे गति दे रहा है,
तुम चेहरा फेर लो,
मैं इंतज़ार करूँ,
मेरी आँखों को तुम कनखियों से देखो,
मैं आहिस्ता शर्म को दरकिनार करूँ,
और नैन जो चार हुए अब,
सैलाब आंसुओं का आना ही था,
मौत से भी ज़्यादा सच्चाई है इनमे,
और ज़िन्दगी से ज़रा कम इलज़ाम,
तुम न पोछो इन्हें रहने दो,
तुम्हारी आँखों से बह रहा है जो अमृत,
मेरी साँसों में भी बहने दो,
ये लो मेरा हाथ थामो,
रात से बातें हम करें कुछ,
नींद आये, इससे पहले,
धड़कनों को कम करें कुछ,
अनकहे लफ़्ज़ों को
और बातें करने दो कुछ,
ये दिया क्यों जल रहा है,
लौ को धीमा कर
रात को तुम बढ़ने दो कुछ।।
Tuesday, 1 November 2016
मैं जब भी ....
मैं जब भी शांत हो जाता हूँ,
काव्य सम्राट हो जाता हूँ,
दुनिया मेरी कलम कि स्याही,
और मैं कलमकार हो जाता हूँ,
कम पड़ जाते कोरे कागज़,
लिखने में इतना मशगूल हो जाता हूँ,
कभी दीवार, कभी मेज़, कभी बिस्तर,
कभी ज़मीन पर ही लिखते लिखते सो जाता हूँ,
मैं जब भी शांत हो जाता हूँ,
काव्य सम्राट हो जाता हूँ।
कवि सा जीवन जीता हूँ,
तो यथार्थ सामने आता है,
लिखना मुश्किल नहीं,
वाह वाह तो उसकी होती है,
जिसको सुनाने आता है।
घड़ी यहाँ है सबके पास, पर वक्त कहाँ है,
कविता बैठ कर पढ़ने का बहाना जबर्दस्त कहाँ है ?
यूँ चलते चलते सुना देता ही जुमले कभी दो चार,
कभी "वाह" नसीब होती, कभी "क्यों लिखते हो यार"?
सुनकर शब्द अनमोल ऐसे,
मैं खुद ही खुद में खो जाता हूँ,
जो खुद में मैं यूँ खो जाता हूँ,
शांत बिलकुल हो जाता हूँ,
और मैं जब भी शांत हो जाता हूँ,
फिर काव्य सम्राट हो जाता हूँ।
हँसी...
जो आज तारीफों से नवाजा गया,
तो खिलखिला उठी ये हँसी
जो अबतक गहरी नींद में थी,
जाने ये हँसी कहाँ थी,
जब सगे साथी अपने विजयी हुए थे।
जो आज इस अंधी दौड़ में,
अपनों से आगे निकल गए,
तो जी उठी ये हँसी,
इस बात से बेख़ौफ़
कि हँसी का तेज बढ़ा है, आयु नहीं
जाने ये हँसी कहाँ थी,
जब कभी वो भी आगे बढे थे।
जो आज कुछ ऐसा पा लिया,
जो बाकियों का ख्वाब था,
तो हँसी की छाती चौड़ी हो गयी,
जाने कहाँ थी ये हँसी,
जब उनके ख्वाबों को भी पर लगे थे।
ये थी कहाँ, कहीं तो होगी ये हँसी,
दूसरों के जीत से जी चुराती,
और अपनी सफलता पर इतराती ये हँसी,
खुद का समाचार शुभ हो तो झट से चेहरे पर छा जाती ,
दूसरे के शुभ समाचार से, दिमाग पर चढ़ जाती है ये हँसी,
खुद की हार अस्वीकार इसे क्यों,
क्यों नहीं शीश झुकाये आती ये हँसी?
कभी तो दूसरों की हार पर भी निकल जाती ,
इंसानियत का पाठ , क्यों न जाने ये हँसी?
इतनी जलती क्यों है
इसे जलाता कौन है,
अपना पराया इसे सिखाता कौन है,
कौन है इसका मालिक ,
इसे चलाता कौन है?
बचपन की एक पहचान है हँसी,
जो जवानी की कश्ती पर
कभी डोलते, कभी गोते खाते,
बुढ़ापे की नर्म छाँव तक पहुँचती है,
ये तो पाक है, मासूम है,
लहु की ठंढक, सुकून भरी साँसों का प्रतीक,
ये नहीं जल सकती ,
ये नहीं किसी के कहने पर ढल सकती
ये तो इंसान है जो तोड़ता मरोड़ता है,
बचपन के इस पहचान को भी,
स्वार्थ के तराजू पर तोलता है,
ये न कहीं जाती है, न आती है,
हँसी एक खिलखिलाता फूल है,
जो बिन पूछे, बिन बोले बस खिल जाता है,
माली कोई भी हो उसका मगर,
वो फूल सभी को देख मुस्काता है,
ये अपना दर्शक नहीं चुनता,
वसुधैव कुटुम्बकम का जीता जागता प्रमाण है ये,
इससे न खेल मनुष्य,
कुदरत का एक बहुमूल्य वरदान है ये।।