Tuesday, 1 November 2016

मैं जब भी ....

मैं जब भी शांत हो जाता हूँ,
काव्य सम्राट हो जाता हूँ,
दुनिया मेरी कलम कि स्याही,
और मैं कलमकार हो जाता हूँ,
कम पड़ जाते कोरे कागज़,
लिखने में इतना मशगूल हो जाता हूँ,
कभी दीवार, कभी मेज़, कभी बिस्तर,
कभी ज़मीन पर ही लिखते लिखते सो जाता हूँ,
मैं जब भी शांत हो जाता हूँ,
काव्य सम्राट हो जाता हूँ।

कवि सा जीवन जीता हूँ,
तो यथार्थ सामने आता है,
लिखना मुश्किल नहीं,
वाह वाह तो उसकी होती है,
जिसको सुनाने आता है।
घड़ी यहाँ है सबके पास, पर वक्त कहाँ है,
कविता बैठ कर पढ़ने का बहाना जबर्दस्त कहाँ है ?
यूँ चलते चलते सुना देता ही जुमले कभी दो चार,
कभी "वाह" नसीब होती, कभी "क्यों लिखते हो यार"?
सुनकर शब्द अनमोल ऐसे,
मैं खुद ही खुद में खो जाता हूँ,
जो खुद में मैं यूँ खो जाता हूँ,
शांत बिलकुल हो जाता हूँ,
और मैं जब भी शांत हो जाता हूँ,
फिर काव्य सम्राट हो जाता हूँ।

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