जो आज तारीफों से नवाजा गया,
तो खिलखिला उठी ये हँसी
जो अबतक गहरी नींद में थी,
जाने ये हँसी कहाँ थी,
जब सगे साथी अपने विजयी हुए थे।
जो आज इस अंधी दौड़ में,
अपनों से आगे निकल गए,
तो जी उठी ये हँसी,
इस बात से बेख़ौफ़
कि हँसी का तेज बढ़ा है, आयु नहीं
जाने ये हँसी कहाँ थी,
जब कभी वो भी आगे बढे थे।
जो आज कुछ ऐसा पा लिया,
जो बाकियों का ख्वाब था,
तो हँसी की छाती चौड़ी हो गयी,
जाने कहाँ थी ये हँसी,
जब उनके ख्वाबों को भी पर लगे थे।
ये थी कहाँ, कहीं तो होगी ये हँसी,
दूसरों के जीत से जी चुराती,
और अपनी सफलता पर इतराती ये हँसी,
खुद का समाचार शुभ हो तो झट से चेहरे पर छा जाती ,
दूसरे के शुभ समाचार से, दिमाग पर चढ़ जाती है ये हँसी,
खुद की हार अस्वीकार इसे क्यों,
क्यों नहीं शीश झुकाये आती ये हँसी?
कभी तो दूसरों की हार पर भी निकल जाती ,
इंसानियत का पाठ , क्यों न जाने ये हँसी?
इतनी जलती क्यों है
इसे जलाता कौन है,
अपना पराया इसे सिखाता कौन है,
कौन है इसका मालिक ,
इसे चलाता कौन है?
बचपन की एक पहचान है हँसी,
जो जवानी की कश्ती पर
कभी डोलते, कभी गोते खाते,
बुढ़ापे की नर्म छाँव तक पहुँचती है,
ये तो पाक है, मासूम है,
लहु की ठंढक, सुकून भरी साँसों का प्रतीक,
ये नहीं जल सकती ,
ये नहीं किसी के कहने पर ढल सकती
ये तो इंसान है जो तोड़ता मरोड़ता है,
बचपन के इस पहचान को भी,
स्वार्थ के तराजू पर तोलता है,
ये न कहीं जाती है, न आती है,
हँसी एक खिलखिलाता फूल है,
जो बिन पूछे, बिन बोले बस खिल जाता है,
माली कोई भी हो उसका मगर,
वो फूल सभी को देख मुस्काता है,
ये अपना दर्शक नहीं चुनता,
वसुधैव कुटुम्बकम का जीता जागता प्रमाण है ये,
इससे न खेल मनुष्य,
कुदरत का एक बहुमूल्य वरदान है ये।।
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