चलो सोने चलते हैं,
एक दुसरे में खुद को खोने चलते हैं,
सर अपना मैं तुम्हारे गोद में रख दूँ,
और तुम मेरा केश संवारो,
मैं आँखें बंद करूँ,
और तुम मुझे निहारो,
मैं तुम्हारे दिन भर के काम के थकान को छुपाती तुम्हारे आँखों के असमर्थ प्रयास को पढ़ लूँ,
और तुम न कुछ कहो,
बस एक मुस्कान न्योछावर कर दो,
आंसुओं के अम्बार को पनाह देती ये मुस्कान,
हो मानो खोखले महल का पहरेदार,
मैं बातें करूँ तुम्हारी ज़ुल्फ़ों से,
तुम रुष्ट होकर, ज़ुल्फ़ संवारो,
गुस्सा ये तुम्हारा, अल्हड़पन ये,
यही तो साँसों को मेरे गति दे रहा है,
तुम चेहरा फेर लो,
मैं इंतज़ार करूँ,
मेरी आँखों को तुम कनखियों से देखो,
मैं आहिस्ता शर्म को दरकिनार करूँ,
और नैन जो चार हुए अब,
सैलाब आंसुओं का आना ही था,
मौत से भी ज़्यादा सच्चाई है इनमे,
और ज़िन्दगी से ज़रा कम इलज़ाम,
तुम न पोछो इन्हें रहने दो,
तुम्हारी आँखों से बह रहा है जो अमृत,
मेरी साँसों में भी बहने दो,
ये लो मेरा हाथ थामो,
रात से बातें हम करें कुछ,
नींद आये, इससे पहले,
धड़कनों को कम करें कुछ,
अनकहे लफ़्ज़ों को
और बातें करने दो कुछ,
ये दिया क्यों जल रहा है,
लौ को धीमा कर
रात को तुम बढ़ने दो कुछ।।
Wednesday, 2 November 2016
चलो सोने चलते हैं...
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