Monday, 27 June 2016

जो तुम आते ....

कब घुंघरुओं के अवकाश से , नर्तकी के कदम थमे?
कब  दो सितारों में पड़ी दरार से, नक्षत्र नहीं बने?
फुरसत कहाँ इतनी किसको , जो फुसलाये,
इन बड़ो की भीड़ में, दिल कहाँ कोई बच्चा है?
जो तुम आते तो अच्छा था,
जो न आये तो भी अच्छा है।।

कब कुछ युवा वृक्षों की कटाई पर, सावन आंसू ही झड़ता है?
कुछ हज़ार किरणे भी गर, सूरज से रूठ जाएँ,
क्या तिल भर भी फर्क उसे पड़ता है?
क्यों रोते हो बिलख बिलख कर,
जो बीत गया वो झूठा था, अब पहचानों कौन सच्चा है,
चीखो ज़ोर , सुकून मिलेगा,
जो तुम आते तो अच्छा था,
जो न आये तो भी अच्छा है।।

कब बिन छाया, बिन ताल, पथिक को मंज़िल मिली नहीं?
कब बिन घरनी के व्रत-पूजा, पति की आयु क्षणिक रही?
कब बिन मर्यादा पुरुषोत्तम , ही अयोध्या की साँसें थमीं?
कब बिन द्रोण-शिक्षा ही, एकलव्य की दृढ़ता नीर बनी?
ये चक्र ही कुछ ऐसा है,
निवेदन करूँगा एक बार,
पर मैं गिड़गिड़ाऊँगा? क्यों तुम्हें ऐसा लगता है?
कहूँगा इतना बस,
जो तुम आते तो अच्छा था,
जो न आये तो भी अच्छा है।।

Friday, 24 June 2016

कलम की स्याही सूख गयी....

अभी तो बहुत कुछ करना था,
पंक्ति बद्ध धीरे धीरे आगे बढ़ना था,
मगर साथ जिसका थामा, देखो वो ही हमसे रूठ गयी,
कलम की स्याही सूख गयी।।

कोई शर्माता है, कोई छुपाता है
मैं कहूँगा मगर,
हमने भी रंगों से दुनिया अपनी सजाई थी,
जी हाँ, जवानी हमारे भी डाल पर आई थी,
सच मान बैठा मैं जो उसके कस्मे ,किस्से,
वो सारी झूठ भईं,
कलम की स्याही सूख गयी।।

मन में ही सही, महल तो मैंने भी बनाया था,
बाग़, बगीचे, बिस्तर, बड़े शौक से सजाया था,
जानूँ क्या मैं, बाजु का स्वर्ण महल तुझे भा जायेगा, सीरत और नीयत तेरी पल में झुक गयी,
कलम की स्याही सूख गयी।।

हिम्मत भी कहाँ कुछ बूँद बची,
अब इंतेकाम पर जाये कौन?
मंज़िल की तलाश में पंक्तियाँ मेरी अब भी,
इन पर पूर्ण विराम लगाये कौन?
समझा जिसे निवारण, वो पीड़ा हर सांस में फूँक गयी,
कलम की स्याही सूख गयी।।

किसी गुमशुदा की खोज में....

थक हारे मांदे , भर दिन , सूरज के छर्रों को झेला,
बहाऊँ क्या मैं , क्या मैं पोछूँ,
पसीना, आंसू..... कीमत एक ही, एक ही खेला,
बड़ी देर कर दी मेहरबान ,
पर आ ही गयी अब वो बेला
नीचे खाट, ऊपर बिछौना , ऊपर हम, और हमरे ऊपर
पलके झपकाते तारों का मेला

पर हादसा - सा कुछ हुआ,
आलिंगन फैलाये खड़ी थी
वो नींद , दे गयी बद्दुआ,
खाट छोड़ा उठ खड़ा मैं जोश में,
किसी गुमशुदा की खोज में।।

किस्सा न याद आये पुराना,
कुछ संजोई, कुछ पिरोई, अब धुंधली
यादों पर से पड़ेगा ये गर्द हटाना,
तीली बारी,मोम जलाया,
इधर मैं जलूं ,उधर वो जले,
साथी मैने उस में पाया,
पर वो अक्ल का मालिक
पिघल कर शांत कर लेता जलन अपने होश में,
हर ले मेरे भी जलन को जो,
हूँ पड़ा उस
गुमशुदा की खोज में।।

हर कड़ी से कड़ी जोड़ते हैं,
वो कहने वाले न कोई  मौका छोड़ते हैं,
छूट जाते खुद ही वो पीछे तो अच्छा होता,
दाग चेहरे के तो गिना जाता कोई अपना भी ,
मगर होता तो सच्चा होता।
झेला थपेड़े खेत में,
कभी बैलों  के पीछे भागता
पैर छिल गए  चलते चलते रेत में,
हूँ खोजता है मैं नर्म स्पर्श
आज अपने चोट और खरोच में,
हूँ मैं किसी गुमशुदा की खोज में।।
किसी गुमशुदा की खोज में।।

आज चाँद नहीं आया...

अम्मा देखो, गज़ब हो गया,
अट्टरिये पर कल जो आया था,
वो चाँद जाने कहाँ खो गया।

सूरज तो हर दिन आता है ,गुस्से से जलता जाता है,
थक जाता फिर , दास निशा का बन जाता है
आसमान भी  निशा से डरकर
काले  चादर के पीछे छिप जाता है
मगर आज ये  चादर है क्यों बेदाग़ इतना ?
मानो जैसे नर्तकी के कदम थिरके , पर घुंघरुओं पर हो सन्नाटा छाया,
आज चाँद नहीं आया।।

चुपके  चुपके आता था,
पिटारा अपना फैलाता था,
जादुई पिटारे से, तारों में प्राण भर जाता था,
हस्ते मुस्काते तारे कितने,
यह देख वो भी खुश हो जाता था
पर देख माँ,
आज ये तारे कैसे आँखें मीचें बैठे हैं,
क्यों आज उलटी पड़ी है सृष्टि की काया,
आज चाँद नहीं आया।।

कल कुछ बच्चे उसे चिढ़ा रहे थे,
उसके चेहरे के दागों पर नमक उड़ा रहे थे,
लगता है उन लोगों  ने मेरे मित्र को है ठेस पहुँचाया,
इसी वजह से शायद,
आज चाँद नहीं आया।।

पुती पड़ी है कालिख देखो,
अब हर चेहरे, हर दीवार पर,
सज धज कर जो बाहर निकली नायिका,
कालिख उसके भी श्रृंगार पर,
एक अंधे के जीवन का तम
देखो ,आज सारे संसार पर
आज सारे संसार पर।

अँधेरे में है आज , वो सारे कस्मे, वो वायदे,
अँधेरे में है आज , सारे कानून - कायदे,
अँधेरे में है आज, मोहोब्बत हमारी,
अँधेरे में है आज, इबादत तुम्हारी,
और अँधेरे में ही रह गयी , शहादत हमारी।।

शोख मनाता फिरता होगा कहीं,
के मन के तम को वो हर न पाया,
इसिलए
आज चाँद नहीं आया।।

Friday, 17 June 2016

क्यों आज इतनी धूल जमी है....

क्यों आज इतनी धूल जमी है,
तख़्त पर पड़ी किताबों पर
क्यों आज इतनी धूल जमी है,
उन बचपन के इरादों पर....
आसमान में उड़ना था किसी को
तो किसी को सूरज सा चमकना था,
क्यों आज शांति का ग्रहण लगा है,
बचपन के शहजादों पर।।

क्यों आज इतनी धूल जमी है
दादा जी के चश्मों पर,
वादा किया था दादा जी से ,कभी झूठ नहीं बोलेंगे,
फिर क्यों आज इतनी धूल जमी है
खाये उन सच्ची कसमों पर।
कभी एक छत के नीचे ही सब रहते थे
मामा ,चाचा , भाई , भाभी
फिर क्यों आज इतनी धूल जमी है
उन रिश्ते नाते रस्मों पर,
क्यों आज इतनी धूल जमी है
दादा जी के चश्मों पर।।

क्यों आज इतनी धूल जमी है
मेरे कमरे के सबसे अज़ीज़ हिस्से में,
मेरी नायिका के श्रृंगार का प्रथम दर्शक
उस किस्मत वाले शीशे में,
क्यों आज इतनी धूल जमी है
कमरे में ही
कोरे पड़े उन कागज़ों के थोक पर
जिस पर मैं हाल -ऐ -दिल स्याही करता था
कभी उनकी तीखे नैन ,
तो कभी उनके कातिल होंठ पर
क्यों आज इतनी धूल जमी है
उन कोरे कागजों के थोक पर।।