अभी तो बहुत कुछ करना था,
पंक्ति बद्ध धीरे धीरे आगे बढ़ना था,
मगर साथ जिसका थामा, देखो वो ही हमसे रूठ गयी,
कलम की स्याही सूख गयी।।
कोई शर्माता है, कोई छुपाता है
मैं कहूँगा मगर,
हमने भी रंगों से दुनिया अपनी सजाई थी,
जी हाँ, जवानी हमारे भी डाल पर आई थी,
सच मान बैठा मैं जो उसके कस्मे ,किस्से,
वो सारी झूठ भईं,
कलम की स्याही सूख गयी।।
मन में ही सही, महल तो मैंने भी बनाया था,
बाग़, बगीचे, बिस्तर, बड़े शौक से सजाया था,
जानूँ क्या मैं, बाजु का स्वर्ण महल तुझे भा जायेगा, सीरत और नीयत तेरी पल में झुक गयी,
कलम की स्याही सूख गयी।।
हिम्मत भी कहाँ कुछ बूँद बची,
अब इंतेकाम पर जाये कौन?
मंज़िल की तलाश में पंक्तियाँ मेरी अब भी,
इन पर पूर्ण विराम लगाये कौन?
समझा जिसे निवारण, वो पीड़ा हर सांस में फूँक गयी,
कलम की स्याही सूख गयी।।
No comments:
Post a Comment