Friday, 17 June 2016

क्यों आज इतनी धूल जमी है....

क्यों आज इतनी धूल जमी है,
तख़्त पर पड़ी किताबों पर
क्यों आज इतनी धूल जमी है,
उन बचपन के इरादों पर....
आसमान में उड़ना था किसी को
तो किसी को सूरज सा चमकना था,
क्यों आज शांति का ग्रहण लगा है,
बचपन के शहजादों पर।।

क्यों आज इतनी धूल जमी है
दादा जी के चश्मों पर,
वादा किया था दादा जी से ,कभी झूठ नहीं बोलेंगे,
फिर क्यों आज इतनी धूल जमी है
खाये उन सच्ची कसमों पर।
कभी एक छत के नीचे ही सब रहते थे
मामा ,चाचा , भाई , भाभी
फिर क्यों आज इतनी धूल जमी है
उन रिश्ते नाते रस्मों पर,
क्यों आज इतनी धूल जमी है
दादा जी के चश्मों पर।।

क्यों आज इतनी धूल जमी है
मेरे कमरे के सबसे अज़ीज़ हिस्से में,
मेरी नायिका के श्रृंगार का प्रथम दर्शक
उस किस्मत वाले शीशे में,
क्यों आज इतनी धूल जमी है
कमरे में ही
कोरे पड़े उन कागज़ों के थोक पर
जिस पर मैं हाल -ऐ -दिल स्याही करता था
कभी उनकी तीखे नैन ,
तो कभी उनके कातिल होंठ पर
क्यों आज इतनी धूल जमी है
उन कोरे कागजों के थोक पर।।

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