कब घुंघरुओं के अवकाश से , नर्तकी के कदम थमे?
कब दो सितारों में पड़ी दरार से, नक्षत्र नहीं बने?
फुरसत कहाँ इतनी किसको , जो फुसलाये,
इन बड़ो की भीड़ में, दिल कहाँ कोई बच्चा है?
जो तुम आते तो अच्छा था,
जो न आये तो भी अच्छा है।।
कब कुछ युवा वृक्षों की कटाई पर, सावन आंसू ही झड़ता है?
कुछ हज़ार किरणे भी गर, सूरज से रूठ जाएँ,
क्या तिल भर भी फर्क उसे पड़ता है?
क्यों रोते हो बिलख बिलख कर,
जो बीत गया वो झूठा था, अब पहचानों कौन सच्चा है,
चीखो ज़ोर , सुकून मिलेगा,
जो तुम आते तो अच्छा था,
जो न आये तो भी अच्छा है।।
कब बिन छाया, बिन ताल, पथिक को मंज़िल मिली नहीं?
कब बिन घरनी के व्रत-पूजा, पति की आयु क्षणिक रही?
कब बिन मर्यादा पुरुषोत्तम , ही अयोध्या की साँसें थमीं?
कब बिन द्रोण-शिक्षा ही, एकलव्य की दृढ़ता नीर बनी?
ये चक्र ही कुछ ऐसा है,
निवेदन करूँगा एक बार,
पर मैं गिड़गिड़ाऊँगा? क्यों तुम्हें ऐसा लगता है?
कहूँगा इतना बस,
जो तुम आते तो अच्छा था,
जो न आये तो भी अच्छा है।।
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