Saturday, 2 July 2016

दिल को समझाए कौन...

कहे सुने की बात है,
वो कमल सी नयनों वाली,
पर बिन देखे, माने कौन?
पैमाने का छल छल अब नीरस,
रस तो उनकी आँखों में ,
होते रसिक तो बात और थी,
पर बिन पिए रस की मर्यादा पहचाने कौन?
रह जाते अभागे, तो अच्छा होता,
क्यों दर्शन उनकेे हो गए,
अब बार बार गुब्बार उठता है,
अब निश्छल मन को बहलाये कौन?

यूँ तो नज़रें गली-मोहल्ले की,
आपकी राह तकती हैं
पर आपने हमारे बगल से गुज़रना चाहा,
अब अपनी किस्मत को अपना माने कौन?
मान ,प्रतिष्ठा , रकमें, शोहरतें,
ये तो लकीरों में गुदी होती हैं,
मगर जो कभी दिल पर, नई एक लकीर बने
फिर दिल -ऐ- नादान को फुसलाये कौन?
रोमियो, राँझा, मजनू, होंगे उस्ताद बड़े मगर,
बौने उनके सामने हम भी नहीं,
अब खुद से खुद की तारीफ सुनाये कौन?

कसमें, वादे ,रस्मों - रिवाज़,
न रखते किसी की भी हैसियत ही हम,
निभ गयी तो मालिक अल्लाह, जो न निभ सकी तो,
फिर अपना चेहरा फिरे छिपाये कौन?
हँस के जो दिल बहलाया आपने,
बड़प्पन समझूँ या बचपना आपका,
दिल्लगी तो सभी करते यहां अक्सर,
पर दिल -लगाना आखिर सिखाये कौन?
अब लगा अगर ये दिल यहाँ,
तो जले होंगे कुछ दिल वहाँ,
अपनी जो झोपड़ भी बसे तो
बाकियों को अपने मकान में भी चैन कहाँ,
दिल तो बहल ही जायेगा आज नहीं तो कल,
पर पड़ोसियों से दुशमनी निभाए कौन??

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